कहानी संग्रह >> दो अँगूठियाँ दो अँगूठियाँबंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
|
10 पाठकों को प्रिय 364 पाठक हैं |
मंडप की तरह छाई हुई लता से एक फूल तोड़कर उसे छिन्न-भिन्न करते हुए पुरंदर ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें दुबारा नहीं बुलाऊँगा। मैं दूर देश जा रहा हूँ, इसीलिए तुम्हें यहाँ बुलाया है।’’
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो अँगूठियाँ
बगीचे में लतामंडप के नीचे दो जने खड़े हुए थे। उन दिनों प्राचीन नगर
ताम्रलिप्त के चरणों को धोता हुआ अनंत नीला समुद्र कोमल स्वर में गुंजार
किया करता था।
ताम्रलिप्त नगर के एक छोर पर, समुद्र-तट पर एक विचित्र अट्टालिका थी। उसके पास ही सुंदर ढंग से बना हुआ एक बगीचा था। उसके मालिक सेठ धनदास थे। बगीचे में उन्हीं सेठ की पुत्री हिरण्यमयी लतामंडप के नीचे खड़ी एक युवक से बात कर रही थी।
हिरण्यमयी ने मनोवांछित वर पाने के लिए उसी समुद्र-तट पर वास करने वाली सागरेश्वरी देवी की पूजा ग्यारह वर्ष की उम्र से शुरू कर दी थी। पाँच वर्ष तक आराधना के बाद भी मनोरथ सफल नहीं हुआ।
जब हिरण्यमयी चार साल की थी, तब वह युवक आठ साल का था। युवक के पिता शचीसुत सेठ धनदास के पड़ोसी थे, इसी कारण दोनों बच्चे साथ ही खेला करते थे और साथ-साथ ही रहा करते थे।
इस समय लड़की की उम्र सोलह वर्ष की थी और लड़के की बीस वर्ष। उन दोनों के बीच वही बचपन की मित्रता का संबंध अब भी था। बस, इस मित्रता में थोड़ा-सा विघ्न आ गया। ठीक समय पर दोनों के पिताओं ने उन दोनों का विवाह निश्चित कर दिया था। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई थी। तभी एक दिन अचानक हिरण्मयी के पिता ने कहा था, ‘मैं यह विवाह नहीं कर पाऊँगा।’ उस दिन से हिरण्यमयी ने उस युवक पुरंदर से मिलना-जुलना बंद कर दिया था।
उस दिन पुरंदर ने अनुनय-विनय करके हिरण्यमयी को एक विशेष बात कहने के लिए बगीचे में बुलाया था। लतामंडप के नीचे खड़ी हिरण्यमयी ने पूछा, ‘‘मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है ? अब मैं छोटी बच्ची नहीं रही, इसलिए तुमसे अकेले में बात करती हुई अच्छी नहीं लूगूँगी। दुबारा बुलाओगे तो मैं नहीं आऊँगी।’’
मंडप की तरह छाई हुई लता से एक फूल तोड़कर उसे छिन्न-भिन्न करते हुए पुरंदर ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें दुबारा नहीं बुलाऊँगा। मैं दूर देश जा रहा हूँ, इसीलिए तुम्हें यहाँ बुलाया है।’’
हिरण्यमयीम—दूर देश ! कहाँ ?
पुरंदर—सिंहल।
हिरण्यमयी—सिंहल ! सो क्यों ? सिंहल किस काम के लिए जा रहे हो ?
पुरंदर—क्यों जा रहा हूँ ? हम लोग व्यापारी हैं, वाणिज्य-व्यापार के लिए जाऊँगा। यह कहते-कहते पुरंदर की आँखों में आँसू झलकने लगे।
हिरण्यमयी भी उदास हो गई। वह कोई बात न कर सकी और अपलक दृष्टि से समुद्र की लहरों पर सूर्य की किरणों को क्रीड़ा करते हुए देखने लगी। प्रातःकाल का समय था। हवा मंद-मंद बह रही थी। हवा के बहने से समुद्र में लहरें उठ रही थीं और उन लहरों पर उगते हुए सूर्य की किरणें गिरती-उठती काँप रही थीं। सुमद्र के जल पर उन किरणों की एक अनंत उज्ज्वल रेखा फैल गई थी। समुद्र के किनारे-किनारे जलचर पक्षी सफेद-सी रेखा बनाए घूम रहे थे।
हिरण्यमयी ने सब कुछ देखा—सुमद्र का नीला जल देखा, लहरों के ऊपर सुमद्र के फेन से बनी हुई माला देखी, सूर्य की किरणों की क्रीड़ा देखी, दूर पर सुमद्री जहाज देखे, नीले आकाश में काले बिंदु के समान लगने वाला एक पक्षी देखा। अंत में जमीन पर पड़े एक सूखे हुए फूल को देखकर वह कहने लगी, ‘‘तुम क्यों जा रहे हो ? पहले तो तुम्हारे पिता वहाँ जाया करते थे।’’
पुरंदर बोला, ‘‘मेरे पिता अब वृद्ध हो गए हैं। मैं अब धन कमाने लायक हो गया हूँ। पिता की आज्ञा लेकर ही जा रहा हूँ।’’
हिरण्यमयी ने लतामंडप की एक डाल पर अपना सिर टिका दिया। पुरंदर ने देखा—उसका माथा सिकुड़ गया है, होंठ फड़क रहे हैं, नथुने फूल गए हैं और वह रो रही है।
पुरंदर ने अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया। उसने भी एक बारगी आकाश, पृथ्वी, नगर समुद्र सभी को देखने की चेष्टा की लेकिन उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। उसकी आँखों से आँसू पहने लगे। आँसू पोंछते हुए उसने कहा, ‘‘बस, यही बात कहने के लिए मैं यहाँ आया था। जिस दिन तुम्हारे पिता ने यह कहा था कि मेरे साथ तुम्हारा विवाह नहीं हो सकेगा, उसी दिन मैंने सिंहल जाने का विचार कर लिया था। मेरी यही इच्छा है कि मैं कभी सिंहल से वापस लौटकर नहीं आऊँ। अगर मैं कभी तुम्हें भूल पाया तभी वापस आऊँ, अन्यथा नहीं। बस, ज्यादा मैं तुमसे नहीं कह पाऊँगा और तुम भी ज्यादा कुछ समझ नहीं पाओगी। बस, इतना समझ लो कि अगर एक तरफ सारा संसार हो और दूसरी तरफ केवल तुम हो तो सारा संसार भी मेरे लिए तुम्हारे बराबर नहीं होगा।’’ इतना कहकर पुरंदर ने अचानक पीछे मुड़कर आगे कदम बढ़ाते हुए एक पत्ता पेड़ से नोच लिया। जब उसके आँसू कुछ थमे तो वह वापस मुड़ा और बोला, ‘‘तुम मुझसे स्नेह करती हो, यह जानता हूँ। तुम मुझे अपने मन से निकाल दो। इस जन्म में शायद तुमसे दुबाला मिलन नहीं होगा।’’ इतना कहकर पुरंदर तेजी से वहाँ से चला गया। हिरण्यमयी बैठकर रोने लगी।
हिरण्यमयी के पिता धनदास ने यह बात कही थी कि हिरण्यमयी का विवाह पुरंदर के साथ नहीं कर सकते, लेकिन यह बात उन्होंने क्यों कही थी, यह कोई नहीं जानता था। उन्होंने किसी को भी इसका कारण नहीं बतलाया। कोई पूछता तो कह देते, विशेष बात है। हिरण्यमयी के विवाह के लिए दूसरी जगहों से भी कई रिश्ते आए, लेकिन धनदास किसी भी रिश्ते के लिए राजी नहीं हुए। विवाह की बात पर वह बिलकुल कान ही नहीं देते थे। पत्नी यह कहकर ताने मारती थी कि लड़की अब बड़ी हो गई है, लेकिन धनदास पत्नी की बात भी सुनकर अनसुनी कर देते थे। केवल यही कहते थे, गुरुदेव को आने दो, उनके आने पर ही इस बारे में बात होगी।’
ताम्रलिप्त नगर के एक छोर पर, समुद्र-तट पर एक विचित्र अट्टालिका थी। उसके पास ही सुंदर ढंग से बना हुआ एक बगीचा था। उसके मालिक सेठ धनदास थे। बगीचे में उन्हीं सेठ की पुत्री हिरण्यमयी लतामंडप के नीचे खड़ी एक युवक से बात कर रही थी।
हिरण्यमयी ने मनोवांछित वर पाने के लिए उसी समुद्र-तट पर वास करने वाली सागरेश्वरी देवी की पूजा ग्यारह वर्ष की उम्र से शुरू कर दी थी। पाँच वर्ष तक आराधना के बाद भी मनोरथ सफल नहीं हुआ।
जब हिरण्यमयी चार साल की थी, तब वह युवक आठ साल का था। युवक के पिता शचीसुत सेठ धनदास के पड़ोसी थे, इसी कारण दोनों बच्चे साथ ही खेला करते थे और साथ-साथ ही रहा करते थे।
इस समय लड़की की उम्र सोलह वर्ष की थी और लड़के की बीस वर्ष। उन दोनों के बीच वही बचपन की मित्रता का संबंध अब भी था। बस, इस मित्रता में थोड़ा-सा विघ्न आ गया। ठीक समय पर दोनों के पिताओं ने उन दोनों का विवाह निश्चित कर दिया था। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई थी। तभी एक दिन अचानक हिरण्मयी के पिता ने कहा था, ‘मैं यह विवाह नहीं कर पाऊँगा।’ उस दिन से हिरण्यमयी ने उस युवक पुरंदर से मिलना-जुलना बंद कर दिया था।
उस दिन पुरंदर ने अनुनय-विनय करके हिरण्यमयी को एक विशेष बात कहने के लिए बगीचे में बुलाया था। लतामंडप के नीचे खड़ी हिरण्यमयी ने पूछा, ‘‘मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है ? अब मैं छोटी बच्ची नहीं रही, इसलिए तुमसे अकेले में बात करती हुई अच्छी नहीं लूगूँगी। दुबारा बुलाओगे तो मैं नहीं आऊँगी।’’
मंडप की तरह छाई हुई लता से एक फूल तोड़कर उसे छिन्न-भिन्न करते हुए पुरंदर ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें दुबारा नहीं बुलाऊँगा। मैं दूर देश जा रहा हूँ, इसीलिए तुम्हें यहाँ बुलाया है।’’
हिरण्यमयीम—दूर देश ! कहाँ ?
पुरंदर—सिंहल।
हिरण्यमयी—सिंहल ! सो क्यों ? सिंहल किस काम के लिए जा रहे हो ?
पुरंदर—क्यों जा रहा हूँ ? हम लोग व्यापारी हैं, वाणिज्य-व्यापार के लिए जाऊँगा। यह कहते-कहते पुरंदर की आँखों में आँसू झलकने लगे।
हिरण्यमयी भी उदास हो गई। वह कोई बात न कर सकी और अपलक दृष्टि से समुद्र की लहरों पर सूर्य की किरणों को क्रीड़ा करते हुए देखने लगी। प्रातःकाल का समय था। हवा मंद-मंद बह रही थी। हवा के बहने से समुद्र में लहरें उठ रही थीं और उन लहरों पर उगते हुए सूर्य की किरणें गिरती-उठती काँप रही थीं। सुमद्र के जल पर उन किरणों की एक अनंत उज्ज्वल रेखा फैल गई थी। समुद्र के किनारे-किनारे जलचर पक्षी सफेद-सी रेखा बनाए घूम रहे थे।
हिरण्यमयी ने सब कुछ देखा—सुमद्र का नीला जल देखा, लहरों के ऊपर सुमद्र के फेन से बनी हुई माला देखी, सूर्य की किरणों की क्रीड़ा देखी, दूर पर सुमद्री जहाज देखे, नीले आकाश में काले बिंदु के समान लगने वाला एक पक्षी देखा। अंत में जमीन पर पड़े एक सूखे हुए फूल को देखकर वह कहने लगी, ‘‘तुम क्यों जा रहे हो ? पहले तो तुम्हारे पिता वहाँ जाया करते थे।’’
पुरंदर बोला, ‘‘मेरे पिता अब वृद्ध हो गए हैं। मैं अब धन कमाने लायक हो गया हूँ। पिता की आज्ञा लेकर ही जा रहा हूँ।’’
हिरण्यमयी ने लतामंडप की एक डाल पर अपना सिर टिका दिया। पुरंदर ने देखा—उसका माथा सिकुड़ गया है, होंठ फड़क रहे हैं, नथुने फूल गए हैं और वह रो रही है।
पुरंदर ने अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया। उसने भी एक बारगी आकाश, पृथ्वी, नगर समुद्र सभी को देखने की चेष्टा की लेकिन उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। उसकी आँखों से आँसू पहने लगे। आँसू पोंछते हुए उसने कहा, ‘‘बस, यही बात कहने के लिए मैं यहाँ आया था। जिस दिन तुम्हारे पिता ने यह कहा था कि मेरे साथ तुम्हारा विवाह नहीं हो सकेगा, उसी दिन मैंने सिंहल जाने का विचार कर लिया था। मेरी यही इच्छा है कि मैं कभी सिंहल से वापस लौटकर नहीं आऊँ। अगर मैं कभी तुम्हें भूल पाया तभी वापस आऊँ, अन्यथा नहीं। बस, ज्यादा मैं तुमसे नहीं कह पाऊँगा और तुम भी ज्यादा कुछ समझ नहीं पाओगी। बस, इतना समझ लो कि अगर एक तरफ सारा संसार हो और दूसरी तरफ केवल तुम हो तो सारा संसार भी मेरे लिए तुम्हारे बराबर नहीं होगा।’’ इतना कहकर पुरंदर ने अचानक पीछे मुड़कर आगे कदम बढ़ाते हुए एक पत्ता पेड़ से नोच लिया। जब उसके आँसू कुछ थमे तो वह वापस मुड़ा और बोला, ‘‘तुम मुझसे स्नेह करती हो, यह जानता हूँ। तुम मुझे अपने मन से निकाल दो। इस जन्म में शायद तुमसे दुबाला मिलन नहीं होगा।’’ इतना कहकर पुरंदर तेजी से वहाँ से चला गया। हिरण्यमयी बैठकर रोने लगी।
हिरण्यमयी के पिता धनदास ने यह बात कही थी कि हिरण्यमयी का विवाह पुरंदर के साथ नहीं कर सकते, लेकिन यह बात उन्होंने क्यों कही थी, यह कोई नहीं जानता था। उन्होंने किसी को भी इसका कारण नहीं बतलाया। कोई पूछता तो कह देते, विशेष बात है। हिरण्यमयी के विवाह के लिए दूसरी जगहों से भी कई रिश्ते आए, लेकिन धनदास किसी भी रिश्ते के लिए राजी नहीं हुए। विवाह की बात पर वह बिलकुल कान ही नहीं देते थे। पत्नी यह कहकर ताने मारती थी कि लड़की अब बड़ी हो गई है, लेकिन धनदास पत्नी की बात भी सुनकर अनसुनी कर देते थे। केवल यही कहते थे, गुरुदेव को आने दो, उनके आने पर ही इस बारे में बात होगी।’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book